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सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

सूर्यगढ़ा से एक पत्रकार मित्र ने ये आलेख भेजा है

पैसों के अभाव में बंद हो गया पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन
सूर्यगढ़ा:
सूर्यगढ़ा से एक पत्रकार मित्र ने ये आलेख भेजा है......इसे हम हु बहु प्रकशित कर रहे हैं......

 एक दौर था जब सूर्यगढ़ा की धरती से निकलने वाले पत्र पत्रिकाओं ने अलख की चिंगारी जलाई थी और एक दौर आज है जब पैसों की कमी के कारण सूर्यगढ़ा मुख्यालय से निकलने वाली पत्र-पत्रिकाएं बंद होती जा रही है। सूर्यगढ़ा साहित्यिक व सांस्कृतिक दृष्टि से उर्वर भूमी रहा है।यहां की पूरी आबादी अपने आप में साहित्य है।1974 में आपातकाल ने लोगो की जुबान पर ताला लगा दिया गया  था।जनता सरकार की नीतियों से ऐसा लगा था  कि मुंह पर ताला तो नही,किन्तु जवान खुलकर बोल सके,इसके लिए पेट की अंतड़ियों में जो बल चाहिए उसे समाप्त किया जा रहा था।इसी स्थिति में में सूर्यगढ़ा अंचल का पहला हिन्दी पत्र कोशिश  प्रकाशित  हुआ।इसने सूर्यगढ़ा में साहित्यिक माहौल बनाने में सहयोग किया।इसके माध्यम  से कई स्थानीय कवि-लेखक साहित्य मंच पर अवतरित हुए।इसका प्रवेशांक  वसंत अंक अप्रैल 1978 में प्रकाषित हुआ।यह एक अंतरर्देषीय पत्र था।इसका दूसरा अंक ग्रीष्म अंक कुछ हो कि रंग बदले सफेद मुर्दनी का पर केंद्रीत था।तीसरा अंक पावस अंक लेखक की आवाज पर केन्द्रित था। तो चैथा अंक सर्द अंक अभिव्यक्ति की स्वाधिनता पर केंन्द्रित था।अर्थाभाव के कारण इसके चार अंक ही निकल पायें।1978 में ही यहां से स्मृत्यायन प्रकाषित हुआ जो महादेव झा सुदेव के व्यक्तित्व और कृतित्व तथा षिक्षा पर केंन्द्रित था।इलाके के दर्जन से अधिक रचनाकारों ने इसमें सहयोग किया।इसके पूर्व 1976 में सच का प्रकाषन हुआ।जिसका काफी स्वागत हुआ।सितम्बर 1982 तक लागातार इस अंचल में सन्नाटा पसरा रहा किन्तु अक्टूबर 1982 में अंजनी आनंद ने मयूर का एक अंक निकाला।जिसमें दावा किया गया कि भेदभाव,वाद-गुट से उपर उठकर रचना चयन की कोषिष की गई।इसका दूसरा अंक नही निकल सका।जबकि साहित्य जगत ने विजय विनीत द्वारा संपादित कोषिष,सच,स्मृतयायन की तरह मयूर का भी स्वागत किया गयां।1983 में प्रत्रकार अभयदेव ने फिलहाल निकाला।षोषण,जुल्म,कुव्यवस्था और सामंतवाद के विरोध में जनवादी पत्र के रूप में राष्ट्रीय सीमा को लांधते हुए जापान के पत्र-पत्रिकाओं की भीड़ में अपनी पहचान कायम करने वाला यह पत्र काफी चर्चित रहा।टोकियो जापान से प्रकाषित ज्वालामुखि हिन्दी पत्र ने इसे वर्ष के चार पांच श्रेष्ठ पत्रों में एक बताया।अर्थाभाव के कारण दूसरे अंक की पांडुलिपि की रखी की रखी रह गई।वर्ष 1984 से 1993 तक सूर्यगढ़ा अंचल की पत्रकारिता में एक ठहराव सा आ गया।किन्तु वर्ष 1994 में राकेष रौषन ने अक्षत नामक मासिक पत्रकारिता का प्रकाषन प्रारंभ किया।जिसने दस वर्षो की खामोषी भंग की इसका प्रवेषांक भारतेन्दु हरिषचंद्र को समर्पित था।दूसरा अंक निराला को,तीसरा अंक आतंकवाद,उग्रवाद,नस्लवाद,एवं सम्प्रदायवाद के विरूद्ध संधर्ष करने वाली शक्तियों को समर्पित था।अंक 4,5,6 प्रकृति और नारी को तो 1999 का अंक डा.दिनानाथ सिंह पर केंन्द्रित और उन्ही को समर्पित था।1995 में ही उन्हें जनता महाविद्यालय के प्रभारी प्रर्चाय महेंद्र प्रसाद मिश्र ने महाविद्यालय परिवार के सहयोग से ज्ञापदीप पत्रिका का संपादन किया।इस बीच राजेंद्र राज ने श्रृगिभूमी के चार अंक निकाले। बाद में प्रियदर्षी पत्र का 2005 में एक अंक निकला। वर्तमान में यहां सन्नाटा छाया हुआ है।जबकि 60 के दषक में यहां से हस्तलिखित पत्र भारती के कई अंक निकले।यदि जनप्रतिनिधि सहयोग करें तो अब भी पत्र-पत्रिका एवं पुस्तकों का प्रकाषन संभव है।
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2 टिप्‍पणियां:

  1. government should be care for journalist. patrkar k word kafi dilchasp hai. patrakar ne pakashan aur patrakar k upar government k care ki pol khol k rakh di hai. government ko is pr care krna chahiye. shame on government.

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  2. janpratinidhi ko sahyog dena chahiye. aj patrakar k dum pr hi sari choti se bari khabre logo k bich pahuchti hai. logo ko harek field k bare me achche aur bure ka pata chalta hai. suryagarha to sahitya ki bhumi rhi hai. yaha pr bare se bare sahityakar ka janm hua hai. suryagarha k ek patrakar Dr. vijay vineet jinke likhne ki kala ke sba kayal hai. unki mehnat aur lagan ne logo ko hindustan paper padhne pr majbur kr diya. ais epatrakar agar paiso k abhaw me jindgi gujare to ye sharm ki bat hai hamare state k liye, hamare desh k liye.
    government shoul be careful.

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